क्या इतनी सिंपल सी बात गोवरंमेंट को समझ नहीं आती?
मेरी आठवीं में पढ़ने वाली बेटी ने आज पढ़ते पढ़ते अचानक पूछ लिया: “पापा, एक छोटा सा फ्लैट बनाने में कितनी लागत आयेगी?” “यही कोई दॊ लाख रुपये, क्यों?” “क्या गोवरंमेंट के पास इतने पैसे नहीं होते कि स्लम में रहने वाले सब लोगों को एक छोटा सा फ्लैट ही बना कर दे दे?”
शायद वो अपने सामाजिक विज्ञान की किताब से कोई पाठ पढ़ रही थी जिसमें शहरों में झुग्गी झोपड़ी की समस्या का जिक्र था।
“बात इतनी आसान नहीं है बेटा, मैं कल ही समाचर पत्र में पढ़ रहा था कि औसतन प्रतिदिन दिल्ली में एक हजार लोग दूसरे राज्यों से यहां बसने के लिये आ जाते हैं, सरकार इस सब को बढ़ावा कैसे दे सकती है, हमें समस्या की जड़ों को देखना पड़ेगा।”
“तो बंद क्यो नहीं कर देते उनका यहां आना”
बच्चे की आंखों में प्रशन और गहरा हो गया
“बेटे इसका एक ह्यूमन एंगल (मानविय पहलू)भी तो है। एक बंदा जो दिल्ली में आकर रिक्शा चलाता है तो कई बार अपने गांव में जो उसका लिविंग सटेंडर्ड (रहन सहन) था उससे भी कहीं ज्यादा कमा सकता है।”
कई गावो में तो स्कूल भी नहीं होते और इंडस्ट्रियल एनवायर्मेंट (औद्योगिक वातावरण) जैसे कि बिजली, सड़क और अवैलिबिलिटि ऑफ रॉ मैटीरियल (कच्चे माल की उपलब्धता) भी नहीं है।
बच्चे के चेहरे पर अब चिंता नजर आने लगी थी।
” तो गोवरंमेंट यह सब प्रोवाईड(उपलब्ध) क्यों नहीं करवाती?
क्या इतनी सिंपल (साधारण) सी बात गोवरंमेंट को समझ नहीं आती?”
कोई बताये कि मैं क्या बताऊं?
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