“मुन्नाभाई, अपुन सत्या सुना, हत्या सुना पर ये साहित्या क्या होता है?”
“अरे सरकिट, साहित्या नहीं साहित्य, लिट्रेचर।”
“लिट्रेचर?”
“सरकिट तुम लाइब्रेरी में अलमारियों में भरी किताबें देखीं हैं ना उसी को साहित्य कहते हैं।”
“और भाई वो जो लाइब्रेरी में बड़े बड़े मामू लोगों के फोटो लगे रहते हैं वो कौन हैं?”
“सरकिट, वो मामू लोग नहीं हैं, उनको साहित्यकार कहते हैं जैसे कि टालस्टॉय, शेक्सपियर, तुलसीदास, कबीर, ग़ालिब। इस सब का फोटू लायब्रेरी में लगा रहता है।”
“भाई, तुम भी तो ब्लॉग लिखता है, क्या तुमारा फोटू भी इनके साथ लायब्रेरी मे लगेगा?”
“सरकिट, अपना मुंह इदर कर जरा, बास तो नहीं आ रहा, तुम सुबह सुबह पियेला है क्या? कैसी बहकी बहकी बातें करेला है?”
“नहीं भाई, अपुन पियेला नई हैं, अपुन आज सुबह सुबह एक सपना देखा। सपने में ना भाई, एक भोत बड़े हॉल में एक फंक्शन हो रेला था। साहित्या-कादमी का। उसमें सब बड़े बड़े चिरकुट ब्लॉगर बैठे थे। और भाई वो अपुन की चंपा है ना उसको उदर अवार्ड मिल रेला था। भाई उसको शॉल दिया, बड़ा सा चैक दिया। चंपा ने कैंडिल से लैंप जलाया। भाई क्या मस्त लगरेली थी कसम से।”
“अरे सरकिट, ये चिरकुट वर्ड तुम कहां से सीखा? तेरी तो लैंग्वेज की वाट लग रही है।”
“भाई, मैं रात देर तक हिंदी के ब्लॉग पढ़ता रहा, फिर पढ़्ते पढ़्ते ही सो गया। उसी का असर हो गया।”
“अरे सरकिट, अपुन को लगता है कि ज्यादा ब्लॉग पढ़ने से तुम्हारे दिमाग में कोई कैमिकल लोचा हो गया है। भाई, अपुन अईसैच अच्छे हैं, तुम ज्यादा ब्लॉग विलॉग नईं पढ़ना।”
“पर भाई, वो चंपा का बिलोग?”
“सरकिट, चंपा जब अगला पोस्ट लिखेगी तो अपुन तेरे को बता देगा मगर बाकी हिंदी ब्लॉग्स से तुम दूर ही रहना। तेरी सेहत के लिये लगता है यहीच ठीक रहेगा।”
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