अमृता प्रीतम का उपन्यास ’पिंजर’ मैंने तब पढ़ा था पहली बार जब में स्कूल में ही था। उसके बाद जाने कितनी ही बार पढ़ लिया। आज जब हम आजादी की सालगिरह मना रहे हैं तो मन कहता है कि इस उपन्यास के बारे में कुछ लिखूं। बंटवारे की पृष्टभूमी पर लिखे गये इस उपन्यास पर फिल्म भी बन चुकी है। आप ने यदि यह उपन्यास नहीं पढ़ा और यदि इन्सानी दुखों से आपके हृदय पर सिलवटें पड़ती हैं तो इस उपन्यास को जरूर पढ़ें। यह उपन्यास आपके अस्तिस्व और आपकी सोच पर एक गहरा असर जरूर छोड़ कर जायेगा। जब मैंने पढ़ा तो कच्ची उम्र थी मेरी। उपन्यास का असर और भी गहरा हुआ।
पिंजर कहानी है बंटवारे से पूर्व के हिंन्दुस्तान के पंजाब के एक गांव कि लड़की पूरो के दुखों की। हालांकि उपन्यास पूरी तरह पूरो की कहानी कहता है मगर साथ ही आपको उस समय की राजनैतिक हलचलों के कारण हो रहे घटनाक्रम के प्रभावों से बेचैन कर देता है। पूरे उपन्यास में अमृता जी ने कहीं भी कोई राजनैतिक बयान नहीं दिया, कहीं कोई पात्र कोई राजनैतिक वाक्य नहीं बोलता, मगर जैसे जैसे आप कहानी को पढ़ते जाते हैं, आपके अंदर एक गुस्सा उत्पन्न होता जाता है। आप जैसे जैसे पूरो के दुखों को पढ़ते हैं आप के अंदर वो गुस्सा धधकने लगता है, आप नफरत करने लगते हैं दुनिया भर के उन जिन्नाओं और नैहरूओं से जो अपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण जमीनों, देशों, समाजों और लोगों में बंटवारे करवाते हैं।
दुख की बात यह है की आज भी हमारे राजनेता यही कर रहे हैं। आपने मेरी कई पोस्टों में यह महसूस किया होगा कि मेरे मन में सभी राजनीतीबाजों के लिये एक नफरत हमेशा से रही है। यह बात सही है कि हमारा लोकतंत्र एक मजबूत लोकतंत्र है मगर हमारे राजनेता अभी भी जाति, धर्म और वर्गों के नाम पर हमें बांट रहे हैं। जातियों और धर्म के नाम पर चुनावों में टिकट दिये जाते हैं और जातियों और धर्मों के नाम पर ही चुनाव जीते जाते हैं। क्या हमारे बुजुर्गों ने इसी जातियों, धर्मों, वर्गों और भाषाओं में बंटे हुए लोकतंत्र का सपना देखा था?
अफसोस तो यह है कि सत्ता के लिये नफरत की यह कहानियां अभी भी दोहरायी जाती हैं। कभी दिल्ली में तो कभी गुजरात में ।
इसी उपन्यास से एक अंश:
(साफ न पढ़ पा रहे हों तो इमेज पर क्लिक करें)
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