ओ हरामजादे – 2 O Haramzade Story by Bhishm Sahani
(लेखक भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन से साभार)
ओ हरामजादे -1 से आगे
तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफी थी। पर उस वक्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इन्कार नहीं कर सकता। दिल दुनिया के सच बड़े भॊंडे पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं।
“चल, कहीं बैठ्कर चाय पीते हैं,” तिलकराज ने फिर गाली देकर कहा। “वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली देकर, फक्कड़ तोलकर बगलगीर न हो जाये।”
हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले. खरामा खरामा माई हीरां के दरवाजे की ओर जाने लगे। मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया। मैं जालन्धर की गलियों में यूं घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जगीर में घूमता है। मैं पुलक पुलक रहा था। किसी किसी वक्त मन में से आवज उठती, तुम यहां के नहीं हो, पराये हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी जोर से पटक पटक कर चलने लगता।
“चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?”
“और क्या, तूं हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया।”
इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी जमाने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे। तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुंच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था।
हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे। वही मक्खियों और मैल से अटा गन्दा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालन्धर के ढाबे का मेज था। उस वक्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आकर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूं, कहां का रहने वाला हूं, कि दुनिया में एक कौना ऎसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूं, यह गन्दा ढाबा, यह धूंआधारी फटीचर खोह।
ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहां तक कि थक कर चूर हो गये। वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया। जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था।
तभी उसने कहा, “कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे। अगर इन्कार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूंगा।”
“आऊंगा,” मैंने झट से कहा।
“अपनी मेम को भी लाना। आठ बजे मैं तेरी राह देखूंगा। अगर नहीं आया तो साले हराम दे….”
और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जांघ पर दे मारा। यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था। जो पहले ऎसा कर जाये कर जाये। मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा।
यह स्वाँग था। मेरी जालन्धर की सारी यात्रा ही छलावा थी। कोई भावना मुझे हांके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था।
दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहूंचे। बच्ची को हमने पहले ही खिलाकर सुला दिया था। हेलेन ने अपनी सबसे बढिया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंघों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती:
“तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन सँवर कर ही जाना चाहिये ना।”
मैं हां कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज्यादा दूर होती जा रही थी। न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालन्धर में सही बैठते थे। सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाये। मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, “वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूं? फिर तुम मुझे यहां लाये ही क्यों हो?”
हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुंच गये लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया। मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवर के साथ खाना खायेंगे। पर जब हम उसके घर पहुंचे तो उसने सारा जालन्धर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था। तरह तरह के लोग बुलाये गये थे। मुझे झेंप हुई। अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था। वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही। दोस्त बाहर से आये और वह उसकी खातिरदारी न करे। अपनी जमीन जायदाद बेचकर भी वह मेरी खातिरदारी करता। अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता। पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। जब हम पहुंचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आये और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी।
पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिये मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया। वह चुल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी। वह झट से उठ खड़ी हुई दुप्पटे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आयी। उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आयी थी। ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हँसमुख। उसे यों उठते देखकर मेरा सारा शरीर झनझना उठा। मेरी भावज भी चुल्हे से ऎसे ही उठ आया करती थी, दुप्पटे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी माँ भी। पंजाबी महिला का सारा बांकापन, सारी आत्मियता उसमें जैसे निखर निखर आयी थी। किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो। मैं सराबोर हो उठा। वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई।
“भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?”
“इतना आडम्बर करने की क्या जरूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आये हैं…”
फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब होकर कह, “उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूं? … मैं तुझसे निबट लूंगा।”
उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, “आप आयें और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है।”
वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियाँ मेहमानों से कहती आ रही हैं।
फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गयी। वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो। हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वँय नीचे फर्श पर बैठ गयी। वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी ओर बेधड़क बोले जा रही थी। हर बार उनकी आँखें मिलतीं तो वह हंस देती। उसके लिये हेलेन तक अपने विचार पहुंचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुंचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।
उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही। कभी अन्दर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक एक करके हेलेन को दिखाने लगती। कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती , और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है। फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लायी और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आयी है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी।
इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गयी। भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आयी। पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गयी। जब कभी मेरी नजर हेलेन की ओर उठती तो वह नजर नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इन्तजार में बैठी हूं कि कब तुम मुझे यहां से ले चलो।
रात के बारह बजे के करीब पार्टी खत्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुये अपने अपने घर जाने लगे। उस वक्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे। एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिरकर टूट गया था।
जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा – बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है।
“नहीं यार, अब चलें। देर हो गयी है।”
उसने फिर मुझे धक्का देकर कुर्सी पर फेंक दिया।
कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था। सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाये, चूड़ीयां खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिये मेरे वतन का मुजस्समा बन गयी थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आयी थी। मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हंसी गूंजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती। वर्षों से मैं उन बोलों के लिये तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था।
हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। मेरे लिये उसने क्या नहीं किया था। उसने चपाती बनाना सीख लिया था। दाल छोंकना सीख लिया था। शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुंह से सुने गीत टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी। कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती। रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टांग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालन्धर कहां है और दिल्ली कहां है और अमृतसर कहां है जहां मेरी बड़ी बहन रहती थी। भारत सम्बंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिन्दुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती। पर उस समय मेरी नजर में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था – इन्सान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?
“फिर?” मैंने आग्रह से पूछा।
उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कम्पन हुआ। वह मुस्कराकर कहने लगा, “तुम्हे क्या बताऊं।” तभी मैं एक भूल कर बैठा। हर इन्सान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है……..जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियां देकर और कभी धक्का देकर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाजे पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपककर रसोईघर की ओर से आई और बोली, “हाय, आपलोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिये सरसों का साग और मक्के की रोटियां बनाई हैं।”
मैं ठिठक गया। सरसों का साग और मक्की की रोटियां पंजाबियों का चहेता भोजन है।
“भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंट संट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो….”
“मैं इतने लोगों के लिये कैसे मक्की की रोटियां बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी। मैंने आपके लिये थोड़ी सी बना दी। यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है…..”
सरसों का साग और मक्की की रोटी। मैं चहक उठा, और तिलकराज को सम्बोधन करके कहा. “ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?” और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, “आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है। यह तो तुम्हे चखना ही होगा।”
हेलेन खीज उठी। पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, “मुझे नहीं, तुम्हे चखना होगा।” फिर धीरे से कहने लगी, “मैं बहुत थक गयी हूं। क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?”
सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था। उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था।
“भाभी ने खास हमारे लिये बनाया है। तुम्हे जरूर अच्छा लगेगा।”
फिर बिना हेलेन के उत्तर का इन्तजार किये, साग है तो मैं तो रसोईघर के अन्दर बैठ कर खाऊंगा। मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, “चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास ! एक ही थाली में खायेंगे।”
छोटा सा रसोईघर था। हमारे अपने घर में भी ऎसा ही रसोईघर हुआ करता था जहां मां अंगीठी के पास रोटियां सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे।
फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आंखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर होकर उसे देखे जा रहा था। चुल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था। सोने के कांटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है। इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियां खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हंसते हुए हमारी थाली में डाल देती।
यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिये किसी स्वपन से भी अधिक सुन्दर और हृदयग्राही था। मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही। मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इन्तजार कर रही है। मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वपन भंग हो जायेगा। यह सुन्दरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जायेगा। लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी। वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिये ले गयी थी। बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी।
खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आये तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गयी थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी। हमारे कदमों की आहट पाकर उसने आंखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई।
विदा लेकर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था। नुक्क्ड़ पर हमें एक तांगा मिल गया। तांगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी। पर जब हम लोग तांगे में बैठे कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, “कितने दिन और तुम्हारा विचार जालन्धर में रहने का है?”
“क्यों अभी से ऊब गयीं क्या?” आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई एम सारी।”
हेलेन चुप रही, न हूं, न हां।
“हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिये पागल हुए रहते हैं। आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ। तुम्हे कैसे लगा?”
“सुनो, मैं सोचती हूं मैं यहां से लौट जाऊं, तुम्हारा जब मन आये, चले आना।”
“यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हे मेरे लोग पसंद नहीं हैं?”
भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह खयाल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो में खुल कर घूम फिर सकता था। छुट्टी मना सकता था। पर मैं स्वंय ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था। मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी मोटी नौकरी कर लूं।
हेलेन की शिष्ट, सन्तुलित आवाज में मुझे रुलाई का भास हुआ। मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की। उसमे धीरे से मेरी बांह को परे हटा दिया। मुझे दूसरी बार उसके इर्द गिर्द अपनी बांह डाल देनी चाहिये थी, लेकिन मैं स्वंय तुनक उठा।
“तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई।”
तांगे में हिचकोले आ रहे थे। पुराना फटीचर सा तांगा था, जिसके सब चुल ढीले थे। हेलेन को तांगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे। ऊबड़ खाबड़, गड्डों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार संभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी।
“मैं सोचती हूं, मैं बच्ची को लेकर लौट जाऊंगी। मेरे यहां रहते तुम लोगों से खुलकर नहीं मिल सकते।” उसकी आवाज में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ और यहां झूठी सद्भावना।
“ तुम खुद सारा वक्त गुमसुम बैठी रही हो। मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूं।”
“तुम अपने दिल की भूख मिटाने आये हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाये,” उसने स्थिर, समतल, ठण्डी आवाज में कहा. ”और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है।”
मुझे चाबुक सी लगी।
“इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफरत से उसके बारे में बोल रही हो? हमार देश गरीब है तो क्या, है तो हमारा अपना।”
“मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा।”
“तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है। जितनी ज्यादा चुप रहती हो उतना ही ज्यादा विष घोलती हो।”
वह चुप हो गयी। अन्दर ही अन्दर मेरा हीन भाव जिससे उन दिनों हम सब हिन्दुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था। आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणॊं में भी मुझे अन्दर ही अन्दर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था। अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हे अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था। अंधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आंखें भर आयी हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है। तांगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी। आखिर तांगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ। हमारे घर की बत्ती जलती छोड़कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे। कमरे मे पहुंच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, “तुम्हे किसी हिन्दुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिये थी। उसके साथ तुम खुश रहते। मेरे साथ तुम बंधे बंधे महसूस करते हो।”
हेलेन ने आंख उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी नीली आंखें मुझे कांच कि बनी लगी, ठन्डी, कठोर, भावनाहीन, “तुम सीधा क्यों नही कहती हो कि तुम्हे एक हिन्दुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिये था।
मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगती हो?”
“मैंने ऎसा कुछ नहीं कहा” वह बोली और पार्टीशन के पीछॆ कपड़े बदलने चली गयी।
दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी। मेरी आवाज सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आयी और बच्ची को थपथपाकर सुलाने लगी। बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई। और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई। तभी मैंने पार्टीशन की और जाकर गुस्से से कहा, “जब से भारत आये हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौका मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है। लानत है ऎसी शादी पर!”
मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आयेगा। बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पांव थी। बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।
पर वह उसी समतल आवाज में धीरे से बोली,” तुम्हे मेरी क्या परवाह। तुम तो मजे से अपने दोस्त कॊ बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे।”
“हेलेन!” मुझे आग लग गयी, “क्या बक रही हो।”
मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुन्दर चीज को एक झटके में तोड़ दिया हो।
“तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहा था?”
“मैं क्या जानूं तुम क्या कर रहे थे। जिस ढंग से तुम सारा वक्त उसकी ओर देख रहे थे….”
दुसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुंचा और हेलेन के मूंह पर सीधा थप्पड़ दे मारा।
उसने दोनो हाथों से अपना मूंह ढांप लिया। एक बार उसकी आंखें टेड़ी हो कर मेरी ओर उठीं। पर वह चिल्लायी नहीं। थप्पड़ परने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था। जिससे उसकी कनपटी पर चोट आयी थी।
“मार लो, अपने देश में लाकर तुम मेरे साथ ऎसा व्यावहार करोगे, मैं नहीं जानती थी।”
उसके मुंह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टांगे लरज गयीं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया। हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिये थे। उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था। पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाये खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था। उसके सुनहरे बाल छितराकर उसके माथे पर फैले हुए थे।
यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आंखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था। मेरे मुंह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पाकर मात्र क्रंदन में ही छटपटाकर व्यक्त हो पाया हो। मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आंगन में चला गया। यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था……
इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊंगा। उस दिन जो जालन्धर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया…..
सीढ़ियों पर कदमों की आवज आयी। उसी वक्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आयी। सीढ़ियों की ओर से हंसने चहकने और तेज तेज सीढ़ियां चढ़्ने की आवाज आयी। जोर से दरवाजा खुला और हांफती हांफती दो युवतियां – लाल साहब की बेटियां- अन्दर दाखिल हुईं। बड़ी बेटी ऊंची लम्बी थी, उसके बाल काले थे और आंखें किरमिची रंग की थीं। छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ सांवला था, और आंखों में नीली नीली झाईयां थीं। दोनो ने बारी बारी से मां और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपायी पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं। उनकी मां भी कुर्सी पर बैठ गयी और दोनो बेटियां दिन भर की छोटी छोटी घटनायें अपनी भाषा में सुनाने लगीं। सारा घर उनकी चहकती आवाजों से गूंजने लगा। मैंने लाल की ओर देखा। उसकी आंखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था।
“यह सज्जन भारत से आये हैं। यह भी जालन्धर के रहने वाले हैं।”
बड़ी बेटी ने मुस्कुरा कर मेरा अभिवादन किया। फिर चहक कर बोली, “जालन्धर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा। जब मैं वहां गयी थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था। क्यों मां?” और खिलखिलाकर हंसने लगी।
लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुन्दर था।
वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया। खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे। वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में। वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला। आते जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई। मुझे लगा शहर में उसकी इज्जत है। और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिये छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहां से आया और कहां आकर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियां हांसिल कीं?
विदा होते समय उसने मुझे फिर बांहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अन्दर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है।
“यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है। जिन्दगी मुझपर बड़ी मेहरबान रही है। मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से….” फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हंस कर बोला, “ हां एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आये ’ओ हरामजादे!’ और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूं,” कहते हुए असकी आवज फिर से लड़खड़ा गयी।
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