रचना जी ने जब पांच सवाल पूछे तो मैंने चुटकी ली थी कि “आपको मौका मिला था तो कुछ निजी पोल पट्टी खुलवाते इन सब की। आपने तो बड़े औपचारिक से प्रश्न पूछे।” इस पर समीर भाई ने लिखा कि “जितने लोग सोच रहे हैं कि हमें सस्ते में छोड़ दिया गया है, उनके नाम नोट हो गये हैं. अब कम से कम वो तो सस्ते में नहीं ही छूटेंगे, यह तय रहा.” मुझे आशंका थी कि जल्द ही समीर भाई निशाना साधेंगे मगर जब तक समीर भाई रचना जी के सवालों का जवाब देते और हमें फंसाते, जीतू भाई ने हम पर सवालों के तीर दाग दिये।
वो सवाल जो जब दूसरों से पूछे जा रहे थे तो बहुत आसान लग रहे थे, जब हम से पूछे गये तो कुछ कुछ मुशकिल लगने लगे। फिर भी कोशिश करते हैं कि जवाब सच्चाई और इमानदारी से दिये जायें।
(जब यह लिख रहा था तो श्रीश ने भी मुझे टैग किया है। मगर जो कुछ भी लिखा है उसमें उनके सवालों के जवाब भी मिल जाते हैं इसीलिये अलग से नहीं लिख रहा। मैं जिनको टैग करना चाहता था वे पहले से ही टैग हो चुके हैं तो मैं अपने पांच नाम भी नहीं दे रहा।)
क्या चिट्ठाकारी ने आपके जीवन/व्यक्तित्व को प्रभावित किया है?
बहुत ही अनोखी दुनिया है हिंदी चिट्ठाकारिता की। दुनिया के अलग अलग कोने पर बैठे लोग एक दूसरे से इतना प्यार और सहयोग रखे हैं| बिना किसी स्वार्थ के. बिना किसी लालसा के संबध बन रहे हैं| एक दूसरे का विरोध करते हैं, सहमत होते हैं, फिर विरोध करते रहने के लिये सहमत हो जाते हैं| एक दिन जिस पर गुस्सा दिखाते हैं, दूसरे दिन उसी के ब्लाग पर जाकर प्यार भरी टिप्पणी कर आते हैं :) ऐसी दुनिया में आप प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते हैं? फिर यहां आकर न सिर्फ अपने विचारों को प्रस्तुत करने का मंच मिला, दूसरों को पढ़ पढ़ कर अपने ज्ञान और सोच का दायरा भी बढ़ा। कई चीजों पर मेरी सोच बदली। कई बार तो पूरे 180 डिग्री। शुरू में जीतू भाई आपके चिट्ठे पर जब आपके बारे में पढ़ रहा था तो आपकी एक बात ने बहुत प्रभावित किया, वो थी कि “जिन्दगी हर रोज कुछ ना कुछ नया सिखाती है, बहुत कुछ सीखा…….नही सीख पाया तो बस किसी से नफरत करना।” अनूप जी द्वारा प्रस्तुत अखिलेश जी का लेख “मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं” ने मेरी सोच को जैसे झकझोड़ दिया। इस लेख से संवेदनाओं के नये मायने सीखे। इस लेख ने मेरा ध्यान दूसरे भारत की तरफ खींचा जिस दूसरे भारत के बारे में सृजनशिल्पी जी मुझे लिखने को बार बार कहते रहते थे, उस तरफ ध्यान गया तो जाना कि सच्चाई वह नहीं जो दिल्ली से दिखती है। इसके बाद मेरे लेखन का झुकाव भी इस दूसरे भारत की तरफ हुआ।
अभी हाल ही में लिंक बदलते बदलते रवि रतलामी जी के एक पुराने लेख पर पहुंच गया। इस लेख ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया और वहां एक भावुक सी टिप्पणी भी छोड़ कर आया जिसका जिक्र रवि जी ने भी किया। यूं तो यहां आकर इतनी ज्यादा उद्विग्नताएं और संवेदनायें मिली फिर भी पहले की अपेक्षा अब ज्यादा अच्छी नींद आती है :)
एक बात बताना चाहूंगा कि कभी कभी चिट्ठे में इतना तल्लीन हो जाता हूं कि कई जरूरी काम भी छूट जाते हैं ।
आपने कितने लोगों को चिट्ठाकारी के लिए प्रेरित किया है।
याहू ने जब ३६० ब्लाग शुरू किया तो कुछ एक दो प्रविष्टियां वहां मैंने भी कीं (बहुत कुछ बचकानी सी, ब्लाग के बारे में जानता नहीं था कुछ)। एक जगह जब मैंने रोमन में गालिब का एक शेर लिखा तो शेषनाथ जी की टिप्पणी मिली जिसमें अक्षरग्राम, नारद के साथ अनुनाद जी कें हिंदी लिंकों वाली पोस्ट के लिंक थे। बस, कड़ी से कड़ी मिलती गई। मैं भी वही तरीका अपनाता हूं। बहुत से भारतीय जो अंग्रेजी में लिखते हैं, उनके ब्लाग पर टिप्पणी छोड़ आता हूं, इससे हमें नये पाठक मिलते हैं, कई प्रेरित हो कर हिंदी लिखना भी शुरू कर देते हैं। संख्या नहीं बता पाऊंगा।
आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?
यूं तो पूरी सूची लगा रखी है साईडबार में। सब पसंद हैं। फिर भी अनूपजी, जीतू भाई, रवि जी, रमन जी, दीपक जी, समीर जी, नीरज भाई ऐसे नाम हैं जिनके पोस्ट नारद पर देख कर फट चटका लगता है। अब कुछ कवितायें भी पढ़ने लगा हूं।
आपको चिट्ठाकारी शुरु करते समय कैसा प्रोत्साहन और सहयोग मिला था?
बहुत डरते डरते चिट्ठा शुरू किया था कि पता नहीं लोग कैसा रिएक्ट करेंगे। थोड़ी आशंका तो अब भी रहती है मगर अब लगता है कि सब अपने ही हैं, कोई कुछ कह भी देगा तो झेल लेंगे। उस वक्त डर लगता था। जब मैंने चिट्ठाकार समूह में अपने चिट्ठे को शुरु करने की सूचना भेजी तो आपका जवाब आया कि आपने नारद में इसे शामिल कर दिया है, आपने सभी सद्स्यों को भी कहा कि जाकर टिप्पणी करें और उत्साह बढ़ाएं। मैं गद गद। होंसला बढ़ता गया। जब भी तकनीकि समस्या आई, आपने सहयोग किया। टिप्पाणियां अभी भी प्रोत्साहित करती हैं। खासकर जब पुराने और बड़े चिट्ठाकार टिप्पणी करते हैं तो रोमांचित हो जाता हूं। कुछ टिप्पणियां मैं कभी नहीं भूलता, जैसे की:
देवाशीष जी की टिप्पणी मूषकर जी का ईंटरव्यू पर:
Its very finely written, writer is worth appreciating, simplicity of language is the most admirable followed by splendid use of “LAKSHANA” that characterized “GAGAR MEIN SAGAR” . Keep interviewing.
अनूप जी दिल में वंदेमातरम दिमाग में तेलगी पर
बढ़िया! दिन पर दिन आप ऐसा लिखते जा रहे हैं कि क्या कहें याद रहता है कि टिप्पणी करनी बाकी है! बधाई!
समीर भई लगे रहो मुन्ना भाई पर
क्या गजब लिखे हो, भाई. मजा आ गया. बहुत खुब. कहां थे अब तक…?
आपकी टिप्पणी चिट्ठाकार गीता पर
जगदीश भाई,
आपकी प्रविष्टि इस साल के इन्डीब्लॉगीज के लिए सबसे मुफ़ीद प्रविष्टि थी। आप इस वर्ष की नायाब खोज हो। आपकी मुन्नाभाई सीरीज को पढने के लिए मै अकेला ही नही, सैकड़ो अन्य लोग भी इन्तज़ार करते है।
आप अच्छा लिखते हो, लगातार लिखते रहो। भविष्य को आपसे बहुत उम्मीदें है।
आप किन विषयों पर लिखना पसन्द/झिझकते है?
आपको सच बताऊं, जो कुछ भी मैं आईना पर लिखता हूं वह सब मैं लिखना नहीं चाहता। मगर क्या करूं, जो लिखना चाहता हूं वह लिख ही नहीं पाता। बचपन से माता पिता से पाकिस्तान से उजड़ कर आने के किस्से सुने। अभी भी हर तरफ वही भीड़ तंत्र दिखता है। हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। फिर दिल्ली में चौरासी के दंगे देखे। मौत के डर से फटी आंखें देखीं। कैसे सात दिनों में एक शहर का भुगोल और चरित्र बदल जाता है। हर धर्म सद्भावना सीखाता है और हर झगड़ा धर्म के नाम पर ही होता है। कल उस महिला को बिलखते देखा समाचारों में, जिसके पांच बच्चे मर गये समझौता एक्सप्रैस में? चाहता हूं कि सब को बताऊं कि इन राजनीतिबाजों के शिकंजे में न आयें। ये सब धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। मगर कह नहीं पाता। और भी बहुत से दर्द हैं दिल में। लिखना कुछ चाहता हूं, लिख कुछ और देता हूं।
मेरी बेटी जब दो ढाई साल की थी तो चोट लगने से उसके पैर की हड्डी टूट गई। लंबे समय का प्लास्टर लग गया। जो बच्चा एक पल चैन से न बैठता, हिल डुल भी न पाये। ऊपर से दर्द और प्लास्टर की असुविधा। बच्ची परेशान हो जाती तो गोद में उठा बाहर ले जाता और दिखता, वो देखो फूल, वो देखो चिड़िया। रात होती तो वो देखो चंदा मामा। वो देखो तारे। यही खेल खेलता। बच्ची ठीक हो गयी। खेल भी भूल गयी। मैं नहीं भूला। अभी भी वही खेल जारी है। अब खुद से खेलता हूं। दर्द की बात कर नहीं पाता तो ऊट पटांग लिख देता हूं। वो देखो आईना, वो देखो मुन्नाभाई, वो देखो सरकिट…….।
मेरी पसंद
जिंदगी क्या है जानने के लिये
जिंदा रहना बहुत जरूरी है
आज तक कोई भी रहा तो नहीं
सारी वादी उदास बैठी है
मौसमे गुल ने खुदकशी कर ली
किसने बारूद बोया बागों में
आओ हम सब पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा
सबको सारे हसीं लगेंगे यहां
है नहीं जो दिखाई देता है
आईने पर छपा हुआ चेहरा
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं
हम को गालिब ने ये दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हजार बरस
ये बरस तो फकत दिनों में गया
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
बात सुनते तो गालिब हो जाते
ऐसे बिखरे हैं रात दिन जैसे
मोतियों वाला हार टूट गया
तुमने मुझको पिरो के रखा था।
-गुलजार
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