“पापा ये मोबाईल से सूरज का फोटो लेने पर इसमें काला धब्बा क्यों आने लगता है?” मेरी बेटी गाड़ी में बैठी मोबाईल से सूरज का फोटो लेने की कोशिश कर रही थी।
“पता नहीं बेटा, इसका कोई संईटिफिक रीजन (वैज्ञानिक कारण) जरुर होगा।”मगर मेरी आंखों के सामने तो सूरज अपनी पूरी चमक के साथ मौजूद मुझे परेशान कर रहा था।
अकेला सूरज ही दोषी नहीं था, कई सारे साईकल, रिक्शा और स्कूटर वाले सड़क पर बेतरतीब से घुस दिल्ली की ट्रेफिक परंपरा का पालन करते हुए हमें परेशान कर रहे थे। आगे आगे एक तिपहिया जा रहा था तिपहिया वाले ने अपनी अवधारणा के अनुसार तिपहिया के पीछे दो सुत्र लिखे थे पहला : बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला। दूसरा: सौ में से नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।
हमारी भी यह अवधारणा थी कि दिल्ली में सीलिंग के विरोध में दिवाली न मनाने की घोषणा हुई है, शायद इस बार ट्रेफिक कम होगा और शाम को प्रदूषन भी कम होगा मगर पौना किलोमीटर की दूरी पार करने में सवा घंटा लग गया। लगता था पूरी दिल्ली दिवाली की खरीदारी करने बाहर निकल आयी है।
बच्चों ने कहा कि इस बार केवल फुलझड़ियां लेंगे, बम या पटाके नहीं क्योंकि टीचर ने कहा है कि दिवाली पर प्रदूषन होता है। मैंने सोचा फुलझड़ियां भी तो प्रदूषन करेंगी मगर हां ध्वनि प्रदूषन नहीं करेंगी। पर शायद टीचर ने कहा होगा कि एक आध फुलझ्ड़ी अपने शौंक के लिये चला लेना तो बच्चों ने यह अवधारणा बना ली कि प्रदूषन केवल पटाकों से ही होता है, फुलझड़ियों से नहीं।
हम जिस परिवेश में रहते हैं वहां से बहुत सी अवधारणायें अपने अन्दर समेटते चलते हैं और उन्हीं के अनुसार अपने दृष्टिकोण बनाते जाते हैं। एक आम भारतीय की क्या अवधारणा है अपने देश और समाज के बारे में इसे बहुत खूबी से लिखा हमारे नये और युवा चिट्ठाकार भुवनेश शर्मा ने। मगर क्या स्थिति वाकई इतनी भयावह और निराशाजनक है?
पिछले दिनों मेरी कुछ अवधारणायें टूटी हैं, आईये आपसे बांटते हैं
पिछले दिनों अपने काम के सिलसिले में मैं टीसीएस में काम करने वाले एक 22 वर्षिय युवक विकास (बदला हुआ नाम) से मिला। हमारे भुवनेश की ही तरह वह भी मुरेना का ही रहने वाला था। विकास ने जब अपने जिले का नाम बताया तो मुझे झटका सा लगा।
हम लोगों ने चंबल के जिस भिंड-मुरैना को फिल्मों में देखा था वहां केवल डाकू, पहाड़, धूल और मलाह थे। मैंने पूछा “यह वही मुरेना है जहां फूलन वगैरह होते थे?” जवाब में विकास केवल मुस्कुरा दिया। (यह मुरेना है या मुरैना अथवा दो अलग अलग जिले यह अभी तक मुझे स्पष्ट नहीं हुआ) । विकास जैसे कितने ही युवक दूर दराज के गांवों शहरों से आ आकर गुड़गांव में टीसीएस, आईबीएम और एचसीएल जैसी कम्पनियों में अपना झंडा गाड़ रहे हैं।
अकेले इन्फोसिस ने पिछले माह 8000 नये लोगों को रोजगार दिया। एक सर्वे के अनुसार पिछले दस सालों में आईटी क्षेत्र में 7 लाख लोगों को रोजगार मिला, अगले एक वर्ष में 10 लाख नये रोजगार के अवसर केवल आईटी क्षेत्र में ही उपलब्ध होंगे।
हमारा समाज बहुत तेजी से बदल रहा है और सामाजिक समीकरण भी तेजी से बदल रहे हैं और इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बदल रही है।
हर जाति, हर धर्म और हर भाषा के लोग यहां विकास के इन नये मंदिरों में काम करने आ रहे हैं आप ही के गांवों, जिलों और नगरों से। किसे परवाह है कि अगले क्म्प्यूटर या लैपटाप पर बैठे व्यक्ति की जाति, भाषा या धर्म क्या है?
कल जब हम अपनी दिवाली की खरीददारी कर रहे थे और ट्रेफिक से परेशान हो रहे थे तो हमारे रतन टाटा युरोप की सबसे बड़ी स्टील कम्पनी कोरस को 36,500 करोड़ रुपयों में खरीद आये।
भारत की किसी कंपनी की ओर से अब तक के सबसे बड़े इस सौदे से भारत के इस सपूत ने डंके की चोट पर दुनिया वालों को बता दिया कि भविष्य अब भारत का है।
राजनैतिक तौर पर भी केवल साठ साल में हमारा लोकतंत्र जितना परिपक्व हुआ है, अपने आप में एक मिसाल ही है।
मैं यह नहीं कहता कि हमारे देश या समाज में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है मगर स्थिति इतनी खराब और निराशाजनक नहीं है।
अपनी अवधारणाओं के केमरे से देखेंगे तो सूरज में केवल काला धब्बा ही दिखेगा।
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