बच्चों की बातें भी कितनी मासूम होती हैं, हम बड़ों की दुनिया से एकदम अलग। मानव मेरा सात वर्षिय बेटा है। बुब्बू उसका कबूतर भाई है तथा छोटा सा पिल्ला टिम्मी हमारे परिवार का सदस्य। छोटा सा पिल्ला टिम्मी कोई बीस पच्चीस दिन पहले न जाने कहां से आकर हमारे अहाते में घुस गया। बच्चों को तो जैसे खेल ही मिल गया। एक पुराना लकड़ी का दराज उसका कमरा बन गया तथा एक पुरानी शॉल उसका बिस्तर। एक प्लास्टिक का कटोरा उसका बर्तन।
मैंने देखा तो मुझे यह सब पसंद नहीं आया। मुझे लगा कि यह कुत्ता घर में जगह जगह गंदगी करेगा। मगर बच्चों का दिल नहीं तोड़ना चाहता था। फिर मेरी पत्नी ने भी कहा कि सर्दी बहुत है, छोटी सी जान है, यहीं कोने में पड़ा रहेगा और फिर इसे बाहर भी निकाल दिया तो यह इतना छोटा है कि बंद गेट के नीचे से भी घुस आयेगा। जब थोड़ा बड़ा होगा तो निकाल देंगे।
मगर कमाल तो तब हो गया जब मानव ने उसका नामकरण कर दिया टिम्मी भाटिया। इतना ही नहीं, वह पड़ोस में सब को बता भी आया कि हमारे डॉगी का नाम है टिम्मी भाटिया। मैंने उसे डांटा कि यह कुत्ता भाटिया कैसे हो गया तो जवाब मिला कि हमारे घर में जो भी रहता है सब के नाम में भाटिया है तो टिम्मी भी तो हमारे घर में ही रहता है। उसके इस मासूम से जवाब ने मुझे निरुत्तर कर दिया। फिर 13 जनवरी को आयी लोहड़ी। बच्चे जिद्द करने लगे कि लोहड़ी जलाई जाये मगर मुझे दूसरी मंजिल की छत पर पड़ीं मोटी तथा भारी लकड़ियों को उठा कर नीचे लाने में आलस आ रहा था। मैंने बहाना बनाया कि लोहड़ी तो वो लोग मनाते हैं जिनके घर में नया नया बेबी आया हो। “हमारे घर में भी तो टिम्मी आया है, हम उसकी लोहड़ी मनायेंगे।” मैं फिर निरुत्तर हो गया था।
लकड़ियां उठाने छत पर गये तो एक और सरप्राईज मेरा इंतजार कर रहा था। “मेरे भाई का ख्याल रखना, लकड़ियां उसे लग न जायें।” मेरा माथा ठनका। अब यह भाई कहां से आ गया। “बुब्बू मेरा भाई है।” “वो पिजन जो लकड़ियों के पास रहता है वो मेरा भाई है, उसका नाम है बुब्बू।” मानव अपने सभी दोस्तों को भाई कहता है। (बिल्कुल जैसे हम चिट्ठाकारों को भाई बुलाते हैं।)
बच्चों के मन बड़ों की तरह नहीं होते। वे पक्षियों तथा पशुओं से भी रिश्ता गढ़ लेते हैं। हम बड़े उनको व्यावहारिक बनाने के चक्कर में इतने अव्यावहारिक हो जाते हैं कि जब वो बुब्बू की बात करते हैं तो हम उन्हें बुक्स और होमवर्क की याद दिलाते हैं और जब वे टिम्मी की बात करना चाहते हैं तो हम उन्हे टर्म एग्जाम्स की याद दिलाते हैं।
लोहड़ी की रात टिम्मी की हमारे घर में आखिरी रात थी। अगले दिन एक सज्जन उसे बोरे में डाल कर कहीं दूर छोड़ आये। मानव जब स्कूल से आया तो उसे यह बात पता चली। मगर विश्वास नहीं हुआ। एक बार गली का चक्कर भी लगा आया टिम्मी को खोजने के लिये मगर निराश हो लौट आया।
बच्चा तो टिम्मी को शायद भूल गया, मगर आज मुझे टिम्मी याद आ गया जब मैं आउटर रिंग रोड पर मंगोल पुरी के पास से गुजर रहा था।
आज फिर वही हुआ जो हमेशा होता है। दिल्ली में आउटर रिंग रोड पर मंगोल पुरी से गुजरते हुए इतनी बदबू आती है कि नाक सड़ जाये। शायद भारत के हर शहर मैं इस तरह की कोई जगह आपको मिल जायेंगी। वहां रहने वाले सुबह सुबह अपनी प्रकृतिक जरूरतों का निपटारा खुले में ही कर लेते हैं और इसका पता हर आने जाने वाले को पूरे दिन वहां की हवा से लगता रहता है। आज तो जब मैं वहां से गुजरा तो हमारे रेडियो मिर्ची को भी पता चल गया तभी तो फट उन्होंने गीत लगा दिया ‘क्रेजी किया रे….।”
हमारी सरकारें शहरों के विस्तार तो कर रही हैं मगर सार्वजनिक सुविधाओं के नाम पर न तो गरीबों को कोई सेवा देतीं हैं और न ही लोगों को इतनी तमीज है कि जहां हम रहते हैं कम से कम उस जगह को तो गंदा न करें।
मुझे किसी जानवर को पालने का अनुभव नहीं है। मैं टिम्मी को अपने घर नहीं रखना चाहता था क्योंकि मुझे डर था कि वह घर को गंदा करेगा मगर टिम्मी जितने दिन भी हमारे घर रहा, उसने वहां गंदा नहीं किया। यह सिविक सेंस क्या हम छोटे से टिम्मी से सीखेंगे?
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क्या इतनी सिंपल सी बात गोवरंमेंट को समझ नहीं आती?
….फिर भी मेरा भारत महान
मेरा मन धक से रह जाता है…….
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