फ़ोन मिलते ही मैंने जल्दी से पूछा – “पापा की तबीयत कैसी है लाडली?”
“वो तो गुजर गए, १५ दिन हुए अंकल” उसकी आवाज़ में कोई भाव नहीं था। ज़्यादा बात नहीं कर पाया और मैंने फ़ोन काट दिया। आँख के किनारे से एक आँसू निकल कर बहने लगा।
कई दिन से कोई भी फ़ोन आता मन घक से रह जाता। मन हमेशा कहता कि हे भगवान कोई अच्छी ख़बर हो। कोरोना के क़हर ने तो जैसे कोई अच्छी ख़बर छोड़ी ही नहीं थी। बहुत दिन से फ़ोन करने से डर रहा था मगर उस दिन मिला ही दिया।
पापा की परी रही होगी वह भी। मगर गरीब ईरिक्शा चालक ने परी नहीं लाडली नाम रखा था। शायद डरता हो कि परियों जैसे ठाठ कहां करवा पायेगा। परी नहीं तो लाड़ली तो बना कर रख ही सकेगा।
पापा की परी रही होगी वह भी। मगर गरीब ईरिक्शा चालक ने परी नहीं लाडली नाम रखा था। शायद डरता हो कि परियों जैसे ठाठ कहां करवा पायेगा। परी नहीं तो लाडली तो बना कर रख ही सकेगा।
छोटी सी थी जब उसकी माँ हमारे घर काम करने आती थी। कोने में बैठी रहती। स्कूल नहीं जा पाई थी। हमेशा गुमसुम रहती। कुछ पूछो जवाब ना देती। उस दिन फ़ोन पर अपने पिता के मरने की ख़बर जिस मज़बूती से दे रही थी तो मैं बहुत हैरान रह गया था।
कोरोना का ज़ोर कम हुआ तो हमने काम वाली को वापिस बुला लिया मगर माँ के स्थान पर लाडली ही आ गई। मम्मी इतनी सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाएगी उसने मेरी पत्नी को बताया। लडली आती तो बस हंसती ही रहती। कभी मेरा लैपटॉप देखना होता उसे तो कभी वर्क फ़्रॉम होम कर रही मेरी बेटी का लैपटॉप। बहुत से सवाल थे उसके पास पूछने के लिए। कभी किसी बैग की क़ीमत पूछती, कभी किसी साड़ी की।
“अंकल जी, आपकी वेबसाईट मैंने एक आंटी को दिखाई थी, सफ़ेद ज़िप वाला बैग माँग रहीं हैं” एक दिन अचानक से बोली। “मेरी साइट का तुम्हें कैसे पता चला?” मैंने अपनी हैरानी छिपाने की पूरी कोशिश की। “आपने व्हाट्सअप स्टेटस लगाया था ना, उससे।” अब लाडली आए दिन कभी बैग और कभी कोई साड़ी ले कर जाने लगी। किसी महिला से कुरतियाँ ले कर भी बेचने लगी।
“आंटी अगले महीने से दूसरी काम वाली देख लेना। मैं अब यह काम नहीं करूँगी।” मैं दूसरे कमरे में सुन रहा था। आज फिर आँख नम हो गई।
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