केवल व्यस्कों के लिये संसद
आपको याद है दूरदर्शन का वो जमाना जब चित्रहार में हीरो और हिरोईन नजदीक आते (नहीं नहीं आने को होते) तो अचानक स्क्रीन पर कभी पंछी उड़ते नजर आने लगते, झरने नजर आने लगते या कभी हिलते पेड़ नजर आने लगते।
बेचारा दूरदर्शन का सरकारी बाबू, हर बुधवार सुबह सुबह कैंची ले कर बैठ जाता होगा, हर गीत चला कर देखता, जैसे ही धर्मेंद्र हेमा के नजदीक जाने को होता, वहीं कैंची मार देता।
इन बाबुओं का बस चलता तो धर्मेंद्र हेमा का कभी मिलन न हो पाता। बहुत ही सीधा सादा होता था यह बुद्धू बक्सा। अब तो हर समय गटर गंगा बह रही है साहब! गीतों में पंछी या पेड़ दिखाने की गुंजाईश ही कहां है आजकल?
कई बार परिवार के साथ बैठ कर टीवी देखना बहुत मुश्किल हो जाता है। अब सरकार फिर इस सब पर अंकुश लगा रही है और टीवी पर फिल्में सेंसर बोर्ड के सर्टीफिकेट के हिसाब से दिखाई जायेंगी।
होना तो यही चाहिये था कि इस सब को टीवी चैनलों के विवेक पर छोड़ दिया जाता मगर अभी तक का अनुभव यही बताता है कि चैनलों ने वो परिपक्वता नहीं दिखाई और इस प्रकार के अंकुशॊं को निमंत्रित किया।
वह भूल गये कि जो कुछ दिखाया जा रहा है वो अंधेरे सिनेमा हाल में नहीं लोगों के ड्राईंग रूम में देखा जा रहा है।
मगर एक बात बताईये आज जो कुछ भी लोकसभा में हुआ वह किसी अश्लीलता से कम था? देश के सांसद संसद में खड़े गाली गलौच कर सकते हैं? घूसा लहराते दूसरे के पीछे भाग सकते हैं? माईक और हैड्फोन उखाड़ कर फेंक सकते हैं? आपही फैसला कीजिये।
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