जिस दिन से हिंदी याहू शुरू हुआ, मेरा होमपेज बन गया। शुरू से ही साईट पर हिंदी में पढ़ने को इतना कुछ है कि आप पढ़ते पढ़्ते थक जायें साईट के पन्ने खत्म नहीं होते। हर्ष की बात यह है कि यहां केवल हिंदी के समाचार ही नहीं हैं, खाना खजाना, सेहत, मनोरंजन तथा हिंदी साहित्य का अलग विभाग सृजन संसार भी है। मुख्य रूप से मैं सृजन संसार के बारे में आप सब को बताना चाहता हूं। मगर इससे पहले यह और बता दूं कि जैसा कि जीतू भाई ने भी बताया याहू के नये याहू आवर सिटी के पेज पर हिंदी चिट्ठों की फीड भी दी जा रही है।
याहू हिंदी पर समाचारों के बारे में मैं यही बताना चाहुंगा कि लगता है कि हिंदी में समाचार लगभग उसी गति से आ रहे हैं जिस गति से इंगलिश समाचार। कल जब इस्लामाबाद हवाईअड्डे पर आत्मघाती हमला हुआ तो जब तक यह समाचार एन डी टी वी पर ब्रेक होता उससे पहले ही इस समाचार को मैं याहू हिंदी पर पढ़ चुका था।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि याहू हिंदी का जो हिस्सा मुझे सबसे ज्यादा भा रहा है वो है हिंदी साहित्य पर आधारित सृजन संसार। यहां आपको अच्छा और स्तरीय साहित्य मिलेगा जिसमें हैं कहानियां, खासकर लघु कथाएं, कवितायें, पूस्तक समीक्षा तथा अत्मकथात्मक अपना लेखन। मगर कई जगहों पर लेखकों का नाम न देख कर आश्चर्य होता है।
अपना लेखन में मुझे मेरी मनपसंद लेखिका अमृता प्रीतम की आत्मकथा रसीदी टिकट का एक हिस्सा मिल गया, इसका एक अंश आपके लिये यहां प्रस्तुत है:
घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वे भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। माँ जीवित होतीं तो शायद सोलहवाँ साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों की तरह। पर माँ की गैर हाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैर हाजिरी हो गया था। आसपास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिता को इसमें ही सुरक्षा समझ में आई थी कि मेरा कोई परिचित न हो, न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।
सोलहवाँ बरस भी इसी गिनती में शामिल था और मेरा ख्याल है, इसीलिए वह सीधी तरह का घर का दरवाजा खटखटाकर नहीं आया था, चोरों की तरह आया था।
आगे देखिये
कहते हैं ऋषियों की समाधि भंग करने के लिए जो अप्सराएँ आती थीं, उनमें राजा इंद्र की साजिश होती थी। मेरा सोलहवाँ साल भी अवश्य ही ईश्वर की साजिश रहा होगा, क्योंकि इसने मेरे बचपन की समाधि तोड़ दी थी। मैं कविताएँ लिखने लगी थी और हर कविता मुझे वर्जित इच्छा की तरह लगती थी। किसी ऋषि की समाधि टूट जाए तो भटकने का शाप उसके पीछे पड़ जाता है- ‘सोचों’ का शाप मेरे पीछे पड़ गया…
इसी प्रकार मिला गुलजार साहब की पुस्तक रावीपार से उनका आत्मकथात्मक अंश जहां गुलजार साहब अपने लेखन के बारे में बता रहे हैं। आप भी देखिये:
कभी नज्म कहके खून थूक लिया और कभी अफसाना लिखकर जख्म पर पट्टी बाँध ली। मगर एक बात है, नज्म हो या अफसाना, उनसे इलाज नहीं होता। वह आह भी है, चीख भी, दुहाई भी। मगर इंसानी दर्दों का इलाज नहीं है। वह सिर्फ इन्सानी दर्दों को ममिया के रख देते हैं, ताकि आने वाली सदियों के लिए सनद रहे।
इसके अलावा कई कवितायें भी हैं। यूं तो कविताओं में अपना हाथ कुछ तंग ही है मगर पढ़ कर समझने की कोशिश जरूर करता हूं। एक कविता मिली बिटिया मुर्मू के लिए कविता लेखक का नाम नहीं है पर कविता अच्छी लगी:
उठो कि अपने अँधेरे के खिलाफ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ
उठो कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिंगारी
देखो! अपनी बस्ती के सीमान्त पर
जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़
कुल्हाड़ियों के सामने असहाय
रोज नंगी होती बस्तियाँ
एक रोज माँगेगी तुमसे तुम्हारी खामोशी का जवाब
सोचो-
तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं
तुम्हारा मुँह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर
कैसा लगता है तुम्हें
जब तुम्हारी ही चीजें तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं….
इबे डॉट कॉम, टाईम्सजॉब डॉट कॉम, ईंडियाप्रॉपर्टीस डॉट कॉम तथा अन्य कई साईटों एवम उत्पादों के विज्ञापनों के बीच याहू की साईट पर इस तरह का हिंदी साहित्य देख एक आनंद मिश्रित आश्चर्य होता है।
राजेश जोशी जी की एक कविता बचाना भी है यहां:
एक औरत हथेलियों की ओट में
दिए की काँपती लौ को बुझाने से बचा रही है
एक बहुत बूढ़ी औरत कमजोर आवाज में गुनगुनाते हुए
अपनी छोटी बहू को अपनी माँ से सुना गीत
सुना रही है
एक बच्चा पानी में गिरे पड़े चींटे को
एक हरी पत्ती पर उठाने की कोशिश कर रहा है
एक आदमी एलबम में अपने परिजनों के फोटो लगाते हुए
अपने बेटे को उसके दादा दादी और नाना नानी के
किस्से सुना रहा है।
अब इसका निश्चय तो आप ही कीजिये कि यहां याहू बचा रहा है हिंदी को या हिंदी बचा रही है याहू को। इतना तय है कि हिंदी को तो देर सवेर अपना स्थान इंटेरनेट पर मिल ही जायेगा क्योंकि याहू जैसी साईटों को भी अपना काम धंधा फैलाने के लिये हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के सहारे की बहुत जरूरत है।
अपने को तो यही खुशी है कि करोड़ो पेजों के इंटेरनेट पर जहां हिंदी चिट्ठों के अलावा हमें समझ नहीं आता था कि कहां जायें, अब लगता है कि हिंदी का आकाश मिल गया है उड़ान भरने के लिये।
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