दिल्ली में ऑटो पर बैठना हो तो यह मान कर चलना पड़ेगा कि अधिकतर ये लोग फालतू पैसे मांगते हैं और कई बार बद्तमीजी भी करते हैं। मगर उस दिन जो अनुभव मेरे साथ हुआ आपको भी बताता हूं। दोपहर के समय प्रगती मैदान से निकला तो ऑटो ढूंढ रहा था बाराखंबा रोड जाने के लिये। शनिवार होने की वजह से सड़क पर आवाजाही कुछ कम थी, मैं टहलता हुआ सुप्रीम कोर्ट वाली सड़क पर पहुंच गया।
गर्मी और उमस से इतना पसीना बह रहा था जितना कि सुबह नल में पानी भी नहीं आता। एक ऑटो वाला मेरे सामने से निकला, मैंने इशारा किया मगर वो बिना देखे आगे निकल गया। आगे जा कर उसे लाल बत्ती पर रुकते देख मै भी तेज कदमों से उसके पास पहुंच गया। “बाराखंबा चलोगे?” उसने जवाब नहीं दिया मगर इशारे से ही बैठने को कहा और ऑटो स्टार्ट कर दिया।
“कितने पैसे लोगे?” मेरे इस सवाल का भी जवाब नहीं आया। जाने किस मस्ती में डूबा था वह। कोई ५५ की उम्र रही होगी, सांवला दुबला शरीर।
“कितने पैसे लोगे?” मैंने इस बार जरा जोर से दोहराया। अपने बैक मिरर को मेरी तरफ मोड़ते हुए बोला “हजार लाख रुपये कुछ दे देना साहब, अपनी भी गरीबी कट जायेगी” और एक खिलंदड़ सी हंसी हंस दिया वो। “लाख रुपये से गरीबी कट जायेगी?” पुछते हुए मैंने देखा, एक चमक थी उसकी आंखों में। “गरीबी अमीरी तो मन की अवस्था है साहब, मन में संतुष्टी न हो तो करोड़ों होते हुए भी आदमी गरीब ही रहता है।”
अपनी धुन में बोलना शुरू कर दिया उसने “मेरे तीन बेटे हैं सर, तीनॊ को अच्छी शिक्षा दी है, बड़े वाला पीएचडी कर रहा है। तीनों की शादी भी एजुकेटिड लड़कियों से ही करूंगा। छह लोग मिल कर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट खोल लेंगे। बहुत फीस होती है और खर्चा खास कुछ भी नहीं। साल का एक करोड़ तो कहीं नहीं गया।” वो अपना गणित मुझे समझा रहा था। “ऎसी होंडा सिटी तो साल में छह खरीद लूंगा” आगे जाती गाड़ी की और इशारा करते हुए जोर का ठहाका लगाया उसने।
“एक ही बार में सारे कष्ट कट जायेंगे” कहते हुए अपना हाथ जोर से हवा में उठा दिया जैसे अपने कष्टों को गंगा में बहा रहा हो। मुझे “वक्त” फ़िल्म में लाला बने बलराज साहनी की याद आ गई मगर ऑटो वाले की आंखों की चमक और आत्मविश्वास देख मुझे लगा कि इस आत्मविश्वास के आगे तो बड़े से बड़ा जलजला भी रुक जाये। सच में उसके सपनों पर यकीन हो गया था मुझे।
मगर आज जब मनमोहन सिंह मुंम्बई धामकों के बाद कहते हैं कि “आतंकवाद से सख्ती से निपटेगी सरकार” तो हमें यकीन क्यों नहीं होता? उनकी बातों में वह आत्मविश्वास क्यों गायब होता है? सरकार की बातें हमें तोता रटंत जैसी क्यों लगती है।
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