आज नीरज भाई ने लिखा तो मुझे भी आपतकाल का एक किस्सा याद आ गया। मैं दस साल का था, छठी कक्षा में पढ़ता था। इतनी राजनैतिक या सामाजिक समझ तो नहीं आई थी मगर यह पता था कि सरकार ने कुछ नियंत्रण लागू किये हैं आम लोगों पर। इमरजेंसी की इतनी समझ थी कि एक दिन आधी छुट्टी के समय स्कूल के मैदान में घूमते हुए जब सूर्यदेव बादल से घिर गए तो अपने सहपाठी से मैंने कहा था “लगता है सूरज को भी इमर्जेंसी लग गई है”।
अफ़वाहों का बाजार गरम रहता था और लोगों में सब से ज्यादा भय था जबरन नसबंदी को ले कर।
एक दिन सरकारी टीकाकरण अभियान के अंतर्गत हमारे स्कूल में बच्चों को टीके लगाये जाने थे कि स्कूल में अफ़वाह उड़ी कि बच्चों को नसबंदी के टीके लगाये जा रहे हैं। सुनने में आया कि जिस भी बच्चे को यह टीका लगेगा बड़े होने पर उसके बच्चे नहीं हो पाएंगे। आप समझ सकते हैं कि बाल मन पर इसका कैसा प्रभाव हुआ होगा। एक एक दो दो कर के बच्चे खिसकने लगे घर की ओर। टीचर भी बहुत कम नजर आ रहे थे स्कूल में। आधी छुट्टी तक लगभग सारा स्कूल खाली हो चुका था। मैं भी बस्ता उठा भाग खड़ा हुआ घर की ओर। गेट पर चौकीदार भी नदारद था उस दिन। रास्ते में डरता रहा कि जल्दी घर आने का क्या कारण दूंगा घर पहूंच कर। मगर मुझसे पहले महल्ले के जो बड़े बच्चे स्कूल से घर गए थे शायद उनसे पूरी बात का पता चल गया था सो न तो घर वालों ने कुछ पूछा और न ही मैंने बताया।
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