शशि भाई और बुल्लेशाह ने जब काबुल एक्सप्रैस के बारे में लिखा तो स्वंय को फिल्म देखने से रोक नहीं पाया। सच कहूं तो शशि भाई की इन पंक्तियों ने फिल्म देखने को मजबूर किया। “यह फिल्म बेहद साफ-सुथरी फिल्म. फिल्म में मानवीय संवेदनाओं की बात की गईं हैं. एक लाइन में बस यही कहना चाहुंगा कि फिल्म की शरुआत में जिस चरित्र के प्रति आपकी नफरत चरम पर होती है आखिर में उसी चरित्र की मौत पर आपकी आंखें नम होगी.”
तालिबान की मौत पर आंखें नम? सच जानने के लिये फिल्म देखिये। न सिर्फ फिल्म तालिबान, अमेरिका और पाकिस्तान के बारे में कई सच्चाईयों से रूबरू करवाती है, बहुत सी मानवीय संवेदनाओं से भी परिचय करवाती है। मेरी यह पोस्ट काबुल एक्सप्रैस पर नहीं, उस संवेदना पर है जो एक तालिब के लिये आंखों को नम करवा देती है।
इस इतवार द हिंदुस्तान टाईम्स में बरखा दत्त का लिखा एक लेख पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा कि हम अक्सर चीजों को काले या सफेद रंगों में देखते हैं जबकी सत्य हमेशा कहीं ग्रे एरिया में पाया जाता है। यानी सत्य वहीं कहीं छिपा होता है जहां शब्द और विचार धुंधले हो जाते हैं। आगे लिखा कि हम हमेशा अपनी बातों को extreme (चरम) पर ले जाते हैं और जो भी हमारे विचारों से मेल नहीं खाता उसे सिरे से ही नकार देते हैं।
हर आतंकी या तालिब का एक मानवीय चेहरा जरूर होता होगा। मगर समाचारों में हम जो चेहरा देखते हैं, जिस आतंकी स्वरूप से हमारा परिचय होता है उस स्वरूप में एक इंनसान को देखने की गुंजाइश ही हम नहीं छोड़ते। फिल्म में भी इसे एक स्थान पर जॉन, जो एक रिपोर्टर बने हैं, स्वीकार करते हैं कि अपनी रिपोर्ट में तालिब के इन्सानी चेहरे को वे चाह कर भी नहीं दिखा पायेंगे।
हम लोग कभी कभी उसकी बात भी सुनना नहीं चाहते जो हमारी बनी बनाई धारणाओं में फिट नहीं बैठता। हम अपने अपने सच गढ़ लेते हैं और जिंदगी भर उन्हे सच सिद्ध करने के लिये दूसरों के सच को झूठा साबित करते रहते हैं। मजे की बात यह है कि दूसरा भी यही कर रहा होता है। बुश और ओसामा भी शायद यही कर रहे हैं। हम सब भी अपने अपने स्तरों पर यही करते हैं। हम सब लोग अपने अपने पूंजीवादों, समाजवादों, धर्मों, जातियों, भाषाओं, राज्यों, राष्ट्रों, पंथों को ही सच मान अपने अपने सीनों से चिपकाये घूमते रहते हैं और कोइ जरा भी इनसे अलग विचार रखता है तो फट मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं। क्या वैचारिक तौर पर हम स्वंय किसी चरमपंथी से कुछ कम हैं?
संवेदनहीनता के एक और मामले की और ध्यान दिलाया बुल्लेशाह ने। सीएनएन आइबीएन के पत्रकार आसिफ कुरैशी ने कशमीरी पंडितों के कश्मीर छोड़ने पर एक बेहुदा किस्सा सुनाया है। कुरैशी साहब ने ऐसा मजाक किया है जिस पर हंसी भी नहीं आती, जनाब की अक्ल पर रोना जरूर आता है। क्या पत्रकारिता करते हुए आदमी इस प्रकार संवेदनहीन हो जाता है? कशमीरी पंडितों का दुख तो काले और सफेद रंगों की तरह साफ है, क्या इसे समझने के लिये भी किसी को धुंधलकों से सच खोजना होगा?
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