1968-69 की बात है, मैं तीन या चार साल का रहा होंऊगा। अस्सी साल की वो बुढ़िया हमारे सामने के घर में रहती थी। कंकाल सी काया थोड़ी झुकी हुई, बेतरतीब से सफेद चांदी बाल। थोड़ा तुतलाते हुए पंजाबी बोला करतीं।
सब उसे बिस्कुटों वाली बुआ कह कर बुलाते थे। एक आना यानी छह पैसे के दो बिस्कुट बेचा करतीं थी। मगर अब पाँच पैसे और दस पैसे चल पड़े थे। मैं हमेशा पाँच पैसे के दो बिस्कुट ले आता था मगर वो एक पैसा फिर दे जाना कहना नहीं भूलती थीं।
मैं कभी कभी उसके पास ही सो जाया करता था। बाद में माँ उठा लातीं थीं उसके पास से। मुझे इसकी आदत ही हो गई। एक बार जब मैं माँ के साथ रोहतक मामा के घर गया तो रोने ही लगा, मुझे तो बिस्कुटों वाली बुआ के पास ही सोना था।
बिस्कुटों वाली बुआ जब गईं तो वो मेरा पहला अनुभव था मौत के साथ। मैं खङा रहा उसके कमरे के दरवाजे पर, उसे नीचे लिटा दिया गया था जमीन पर। सब कहते इस बच्चे को हटाओ कहीं डर ही न जाए मगर मैं वहीं टिका रहा कि अचानक उनकी बेटी जो शायद अमृतसर से आईं थीं जोर जोर से रोने लगीं।
मैं शायद बहुत ज्यादा कुछ समझ न पाया था कि क्या हो रहा है!!!!!!!!!!!!!