आम आदमी के साथ….? आज के समाचरपत्रों में मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर) में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) यानी आर्थिक विकास के आंकड़े छपे हैं।
आइये इसके पीछे छिपे सामाजिक संदेश को समझने की कोशिश करते हैं। इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) यानी आर्थिक विकास की बढ़ोतरी दर ९.२ फीसदी रही है। पहली तिमाही में यह ८.९ फीसदी थी। इस साल की पहली छमाही में औसत बढ़ोतरी दर ९.१ फीसदी रही है।
यह पिछले १५ साल में पहली छमाही में हासिल सबसे अधिक बढ़ोतरी दर है। यदि यह बढ़ोतरी ८% भी होती रही तो अगले ११ सालों में देश में प्रति व्यक्ति आय दोगुनि हो जायेगी (और वह भी मुद्रास्फीति के प्रभाव को हटाने के बाद)।
अब कुछ चौंकाने वाली बातें, इस तिमाही में कृषि विकास दर रही केवल १.७% और जीडीपी में कृषि उत्पादों की हिस्सेदारी घट कर रह गई है मात्र १७.२% । जी हां, हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि का सहयोग अब मात्र १७.२% ही रह गया है जो कि १९९०-९१ के मुकाबले आधे से भी कम है।
अब कोई यह नहीं कह सकता कि हम एक कृषि प्रधान देश हैं। जीडीपी को उद्योग, कृषि तथा सेवा के तीन क्षेत्रों में बांट कर देखा जाता है। उल्लेखनीय है कि १९८८-८९ में कृषि की विकास दर १५.४% थी। आपको यह भी जानकर हैरानी होगी कि इस १७.२% की हिस्सेदारी पर हमारी ६०% आबादी निर्भर करती है। जिस असमान विकास की बात हमारे कुछ चिट्ठाकार बंधू करते रहे हैं उसका सबूत हैं वित्त मंत्री जी के यह आंकड़े।
लगता है अब ‘आम आदमी’ की परिभाषा ही बदल रही है !
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